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Sunday, September 14, 2025


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चीन के तियानजिन से ‘उम्मीद’ और रूस के ‘भरोसे’ का तोहफा लेकर दिल्ली लौटे प्रधानमंत्री

नई दिल्ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन और जापान दौरे से वापस भारत लौट आए हैं। अंततराष्ट्रीय मामलों के जानकारों का मानना है कि चीन के तियानजिन से लौटे पीएम मोदी उम्मीद और रूस के भरोसे का तोहफा लाए हैं। उनके इस दौरे से कई देशों के रिश्ते में मिठास आने के आसार है। इस दौरे के बाद विश्वास बहाली के उपायोंं पर खास जोर रहेगा। भारत-चीन के बीच सीधी उड़ान सेवा, द्विपक्षीय व्यापार को भी पंख लगेंगे। राष्ट्रपति पुतिन के साथ मुलाकात से एक दूसरे के भरोसे के साथी होने का संदेश मिला है। पीएम मोदी के इस दौरे पर पढ़िए रिपोर्ट
क्या राष्ट्रपति ट्रंप के ‘टैरिफ इंजेक्शन’ ने भारत को चीन के साथ बैठने के लिए मजबूर किया? राजनयिक इस पर केवल मुस्कराते हैं। लेकिन उनका कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन के तियानजिन शहर से कुछ खास तोहफा लेकर दिल्ली लौट रहे हैं। भारत और चीन के बीच में चौड़ी हो चुकी खाई को ‘विश्वास बहाली’ के उपाय के साथ पाटने की कोशिश होगी। विदेश सचिव विक्रम मिस्री को भरोसा है कि एक महीने के अंदर दोनों देशों के बीच में सीधी उड़ान सेवा शुरू हो जाएगी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी चीन से बेहतर कनेक्टिविटी का मंत्र दिया था। विक्रम मिस्री ने कहा कि अगले महीने भारतीय उड्डयन मंत्रालय की टीम चीन जाएगी। बात होगी और 5 साल बाद सीधी उड़ान सेवा आरंभ होने के आसार हैं। राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भी चार महत्वपूर्ण सुझाव दिए हैं। भारत साफ कहा है कि चीन उसका प्रतिद्वंदी नहीं, बल्कि साझीदार है। माना जा रहा है कि आने वाले समय में दोनों देशों की विशेषज्ञ आपसी बातचीत से तमाम मसलों का हल निकालेंगे। आपसी संबंध मजबूत होंगे। भारत के तीर्थ यात्री कैलाश मानसरोवर की यात्रा कर सकेंगे। सीमा पार नदियों को लेकर साझे हितों पर बात हो सकेगी। डेटा का साझा किया जा सकेगा। भारत और चीन व्यापार में नरमी का संकेत दिया है। इससे लग रहा है कि चीन भारत को विशेष यूरिया की आपूर्ति, रेअर अर्थ पर लगी रोक को शिथिल कर सकता है। नाथुला दर्रे से दोनों देशों के बीच में कारोबार शुरू करने रोड-मैप बन सकता है और व्यापार घाटे को तर्कसंगत बनाने में पहल हो सकती है।
भारत और चीन के बीच में खराब रिश्ते की असल जड़ गलवां घाटी में 2020 में हुई सैनिकों की खूनी झड़प है। चीन के सैनिकों ने अंतरराष्ट्रीय समझौता और सहमति को न मानते हुए वास्तविक नियंत्रण रेखा का अतिक्रमण किया था। गलवां, देपसांग, पेंगांग समेत तमाम क्षेत्र में घुसपैठ कर आए थे। सीमा विवाद के इस मुद्दे पर भारत और चीन दोनों देशों ने कोई संकेत नहीं दिया है। यहां एनएसए अजीत डोभाल और उनके चीन के समकक्ष वांग यी के बीच बनी सहमति के आधार पर दोनों देशों ने इस पर कोई बात नहीं की। समझा जा रहा है कि इससे बचते हुए विश्वास बहाली के उपाय पर खास जोर दिया गया। इसमें कूटनीतिक संवाद जारी रखने, दोनों देशों के बीच वार्ता के विभिन्न फोरम को सक्रिय करने, आदान-प्रादन, सहयोग लोगों की आवाजाही बढ़ाने, एक दूसरे की चिंताओं पर ध्यान देने, वैश्विक मंच पर एक दूसरे के हितों की रक्षा करने पर जोर देंगे। राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने द्विपक्षीय वार्ता के बाद इस तरह उपायों पर खास सुझाव भी दिया।
रूस के राष्ट्रपति विश्व में प्रभावी बनकर उभरे हैं। संघाई सहयोग समित में उनकी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग की केमिस्ट्री पूरी दुनिया को अलग संदेश दे रही थी। यह संदेश खास तौर से अमेरिका और यूरोप के लिए था। इसके बाद पुतिन ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अपने रिश्ते को भरोसेमंद के रूप में दिखाया। प्रधानमंत्री मोदी राष्ट्रपति पुतिन की कार से उनके साथ गए। दोनों नेताओं ने कार में बैठकर 40 मिनट के करीब बात की। द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय मामले में इस तरह की केमिस्ट्री हमेशा एक खास संदेश देने के लिए होती है। राष्ट्रपति पुतिन और प्रधानमंत्री मोदी ने पूरी दुनिया को संदेश दिया कि दोनों देश हर कठिन दौर में एक दूसरे के साथी, सहयोगी रहे हैं। रहेंगे।
विदेश मामलों के वरिष्ठ पत्रकार रंजीत कुमार कहते हैं कि अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी, क्योंकि चीन पर आंख मूंदकर भरोसा नहीं कर सकते। सीमा विवाद को लेकर उसका रवैया कभी साफ नहीं रहा।राष्ट्रपति शी जिनपिंग के दौर में चीन इस मामले में भारत से खुलकर बात नहीं करता। जल विवाद पर भी उसका रवैया साफ नहीं रहता। दोनों देशों के द्विपक्षीय व्यापार में होने वाले व्यापार घाटा को वह संतुलित करने से कतराता है। रंजीत कुमार कहते हैं कि जब तक इन तीन मुद्दों पर चीन ईमानदार नहीं होता, तब तक शेष सहमति का बहुत महत्व नहीं है। इसके बाद जो भी हो रहा है, सभी में चीन को तुलना में भारत से अधिक लाभ है। इसलिए विश्वास का संकट है और इस संकट को दूर करने के लिए केवल आश्वासन है। भविष्य का इंतजार है। पूर्व विदेश सेवा के अधिकारी एस के शर्मा कहते हैं कि मुख्य मुद्दों को छोड़ दें तो रेअर अर्थ, विशेष यूरिया समेत तमाम अन्य क्षेत्र में सहमति जरूरी थी। संबंध बहुत खराब मोड़ पर चले गए थे। अब धीरे-धीरे सुधरेंगे। सब एकसाथ नहीं हो सकता।
प्रधानमंत्री मोदी शंघाई सहयोग संगठन की बैठक और चीन की यात्रा पूरी करके नई दिल्ली लौट रहे हैं। इस दौरान भारतीय मीडिया ने चीन-चीन भारत संबंध के बहाने अमेरिका और ट्रंप को हाशिए पर लिया, लेकिन भारत सरकार ने अपनी मर्यादा को बनाए रखा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इसे समझते हैं। उनके रणनीतिकारों ने प्रधानमंत्री की चीन यात्रा से पहले ‘जापान’यात्रा को एजेंडे में प्रमुखता दी। जापान, अमेरिका, आस्ट्रेलिया और भारत अमेरिका के प्रभुत्व वाले क्वॉड के सदस्य हैं। इसका मकसद क्वॉड और एससीओ दोनों को महत्व देना था। हालांकि राष्ट्रपति ट्रंप ने नया बयान दे दिया है। इसके माने निकाले जा रहे हैं। राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा कि भारत ने अब टैरिफ कम करने का प्रस्ताव दिया है, लेकिन अब देर हो चुकी है। ट्रंप कह रहे हैं कि अमेरिका भारत से ढेर सारा सामान खरीदता है। भारत अमेरिका से कम सामान लेता है। लेकिन भारत बहुत अधिक टैरिफ लगाता है। इसमें अमेरिका को भारी नुकसान होता है। ट्रंप के इस बयान से साफ है कि भारत और अमेरिका के बीच में अभी ‘व्यापार समझौता’ के गंभीर प्रयास चल रहे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति भारत के साथ अभी भी बार्गेनिंग कर रहे हैं। भारत में भी एक बड़ा तबका है, जो चाहता है कि भारत अमेरिका के बीच में चल रहा यह टकराव दूर हो जाए। सूचना प्रौद्योगिकी से लेकर शिक्षा और तमाम क्षेत्रों से जुड़े लोगों का मानना है कि इस संबंध के बिगड़ जाने पर अमेरिका को कोई खास नुकसान नहीं होगा, लेकिन भारत को प्रत्यक्ष तौर पर कई अरब डॉलर के तनाव की कीमत चुकानी पड़ेगी।
अमेरिका, रूस और चीन के मामले में भारतीय विदेश नीति की आधारभूत ‘वेवलेंथ’एक जटिल मोड़ पर खड़ी है। पिछले कई दशक से रूस प्रौद्योगिकी तकनीकी सहित जटिल और संवेदनशील रक्षा हथियार, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहयोग, क्षेत्रीय संतुलन में भारत का भरोसेमंद, अजमाया साथी है। 70 प्रतिशत हमारे सैन्य साजो सामान रूस से जुड़े हैं। भारत रूस को नहीं छोड़ सकता। अमेरिका से संबंध 2000 से लगातार बढ़े और वह भारत का रणनीतिक, सामरिक साझीदार देश है। भारत की आर्थिक विकास यात्रा में अमेरिकी सहयोग को नकारना मुश्किल है। इसलिए रूस और अमेरिका की भारत को लगभग समान स्तर पर आवश्यकता है। दोनों मुकाबले चीन की भारत को कम आवश्यकता है। भारत चीन से उसके कच्चेमाल पर अधिक निर्भर है। चीन के साथ भारत का भरोसे का संकट है और भारत को बड़ा व्यापार घाटा झेलना पड़ता है।

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