देहरादून: 23 नवंबर यानि आज इगास पर्व है। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों खासकर गढ़वाल में दीपावली के 11 दिन बाद इगास पर्व मनाने की परंपरा है। कुमाऊं क्षेत्र में इसे बूढ़ी दीपावली भी कहा जाता है।
इगास को लेकर कई तरह की मान्यताएं हैं। एक मान्यता के अनुसार, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम जब 14 वर्ष बाद लंका विजय कर अयोध्या पहुंचे तो लोगों ने दीपक जलाकर उनका स्वागत किया। उस दिन को दीपावली के त्योहार के रूप में मनाया। तभी से इसे दिन पर दीपावली के रूप में मनाया जाता है। संचार माध्यमों के कम होने से गढ़वाल क्षेत्र में लोगों को इसकी जानकारी 11 दिन बाद मिली। इसलिए गढ़वाल में दीपावली के 11 दिन बाद इगास पर्व मनाया जाता है।
यह भी हैं मान्यताएं
एक मान्यता के अनुसार, 17वीं सदी में जब उत्तराखंड के टिहरी जिले में विकासखंड कीर्तिनगर के मलेथा गांव के वीर भड़ माधो सिंह भंडारी तिब्बत की लड़ाई लड़ने गए थे, तब लोगों ने दीपावली नहीं मनाई थी। लेकिन जब वह रण जीतकर लौटे तो दीपकों से पूरे क्षेत्र को रोशन कर दीपावली को इगास पर्व के रूप में मनाया गया।
वही, एक अन्य मान्यता के अनुसार वीर भड़ माधो सिंह भंडारी टिहरी के राजा महिपति शाह की सेना के सेनापति थे। करीब 400 साल पहले राजा ने माधो सिंह को सेना लेकर तिब्बत से युद्ध करने के लिए भेजा। इसी बीच दीपावली का त्योहार भी था। इस त्योहार तक कोई भी सैनिक वापस नहीं आया। इसलिए किसी ने भी दीपावली नहीं मनाई। दीपावली के ठीक 11वें दिन माधो सिंह भंडारी अपने सैनिकों के साथ तिब्बत से युद्ध जीत कर लौट आए। इसी खुशी में दीपावली मनाई गई।
भैलो खेलकर मनाया जाता है इगास
इगास पर्व भैलो खेलकर भी मनाने की परंपरा है। तिल, भंगजीरे, हिसर और चीड़ की सूखी लकड़ी के छोटे-छोटे गठ्ठर बनाकर रस्सी से बांधकर भैलो तैयार किया जाता है। बग्वाल के दिन पूजा अर्चना कर भैलो का तिलक किया जाता है। फिर ग्रामीण एक स्थान पर एकत्रित होकर भैलो खेलते हैं। भैलो पर आग लगाकर इसे चारों ओर घुमाया जाता है।
बनाए जाते हैं मीठे पकवान
इगास पर्व पर सुबह मीठे पकवान बनाए जाते हैं। रात में स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा अर्चना के बाद भैलो जलाकर उसे घुमाया जाता है और ढोल नगाड़ों के साथ आग के चारों ओर लोक नृत्य किया जाता है।