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Wednesday, July 2, 2025

लगातार दूसरी बार उत्तराखंड भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बने महेंद्र भट्ट

देहरादून। राज्यसभा सांसद महेंद्र भट्ट दोबारा उत्तराखंड बीजेपी के अध्यक्ष बन गए हैं। ऐसे करने वाले वो उत्तराखंड बीजेपी के पहले नेता हैं। अध्यक्ष बनते ही उन्होंने 2027 के विधानसभा चुनाव में 60 पार का नारा दे दिया। उन्होंने कहा कि बीजेपी 2027 में विधानसभा जीत की हैट्रिक लगाएगी। महेंद्र भट्ट ने ये भी कहा कि जल्द ही पंचायत चुनावों के लिए अपने अधिकृत प्रत्याशियों की घोषणा करेंगे। उन्होंने ये भी कहा कि पार्टी के अधिकृत प्रत्याशियों के नामांकन को लेकर रणनीति बनाई गई है। निर्विरोध नवनिर्वाचित प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट ने अपने शीर्ष नेतृत्व का आभार जताया। उन्होंने कहा कि मुझे दोबारा प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपने पर वो पार्टी हाईकमान के आभारी हैं। प्रदेश प्रभारी ने हमेशा उत्तराखंड में पार्टी संगठन को मजबूत किया, जिस वजह से आज पार्टी मजबूत हुई है। उन्होंने कहा कि पिछले 3 साल में राजनीतिक चुनौतियों को सफलता के साथ संभव करके दिखाया है।
इस मौके पर महेंद्र भट्ट उत्तराखंड की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस पर प्रहार करने से भी नहीं चूके। उन्होंने कहा कि हर चुनौतियों में कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी है। विरोधी दलों को केदारनाथ सीट पर कमल खिलाकर मुंह तोड़ जवाब दिया है। प्रदेश में 22 लाख प्रांतीय सदस्य भाजपा ने बनाने का काम किया, जिसमें 15 हजार सक्रिय सदस्य भी हैं। उन्होंने कहा कि पंचायत चुनाव में प्रत्येक ग्राम पंचायत पर सक्रिय कार्यकर्ता को लड़ाना और जितना हमारा लक्ष्य है। सबसे बड़ी चुनौती 2027 में विधानसभा चुनाव में जीत हासिल कर हैट्रिक बनानी है। भट्ट ने कहा कि 2027 में 60 पार के नारे के साथ रिकॉर्ड तोड़ जीत हासिल करेंगे। उन्होंने कहा कि मोदी जी के नेतृत्व में देश विकसित भारत के साथ आगे बढ़ रहा।
उत्तराखंड की राजनीति में महेंद्र भट्ट का दोबारा भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष पद पर चुना जाना केवल एक संगठनात्मक घोषणा नहीं, बल्कि इसके पीछे अनेक राजनीतिक संकेत, समीकरण और संभावनाएँ छिपी हैं। एक ओर यह फैसला निरंतरता और अनुभव को प्राथमिकता देने का उदाहरण प्रतीत होता है, तो दूसरी ओर इसे संभावित राजनीतिक अस्थिरता और भीतर से उभरते गुटबाजी के दबावों को संभालने की रणनीति भी माना जा रहा है। भाजपा ने महेंद्र भट्ट को बिना किसी आंतरिक मुकाबले या विरोध के दोबारा अध्यक्ष नियुक्त किया है, जिससे स्पष्ट होता है कि या तो पार्टी में उनके नेतृत्व को लेकर सर्वसम्मति थी, या फिर यह निर्णय ऊपर से थोपे गए फैसले जैसा है, जिस पर कोई चर्चा या विकल्प नहीं रखा गया। यह लोकतांत्रिक संगठनात्मक प्रक्रिया का पहलू भी है और राजनीतिक व्यवहारिकता का भी। भाजपा जैसी अनुशासित और चुनाव-प्रेरित पार्टी में यह असामान्य नहीं है कि शीर्ष नेतृत्व अपने विश्वासपात्र नेता को बिना किसी सार्वजनिक बहस या विकल्प के दोबारा कमान सौंप दे।
महेंद्र भट्ट के पिछले कार्यकाल की बात करें तो उन्होंने संगठन को मजबूत करने में एक हद तक सफलता पाई है। उन्होंने राज्य के कोने-कोने में संगठनात्मक पहुँच बनाने की कोशिश की और बूथ स्तर तक कार्यकर्ताओं से संवाद स्थापित किया। उन्होंने मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के साथ समन्वय बनाए रखा और भाजपा को एकजुट रखने में बड़ी भूमिका निभाई। हालाँकि, यह भी एक तथ्य है कि उत्तराखंड में भाजपा को हाल के वर्षों में कुछ राजनीतिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा है कृ निकाय चुनावों में असंतोष, संगठन और सत्ता के बीच मतभेद, और कार्यकर्ताओं के बीच संवाद की कमी जैसी बातें उठती रही हैं।
इन सब के बीच, 2025 में प्रस्तावित पंचायत चुनाव एक बड़ी परीक्षा बनकर सामने आ रही है। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव किसी भी राज्य के लिए महज स्थानीय निकाय चुनाव नहीं होते, बल्कि ये राजनीतिक जमीन की असली नब्ज को नापते हैं। भाजपा अगर इस चुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई तो उसका सीधा असर 2027 के विधानसभा चुनाव की तैयारियों पर पड़ सकता है। इस लिहाज से पार्टी का भरोसेमंद, अनुभवी और समन्वयक नेतृत्व में विश्वास जताना स्वाभाविक कदम था। यह भी संभव है कि भट्ट को दोबारा मौका इसलिए दिया गया कि पार्टी किसी नए चेहरे को अभी वह राजनीतिक भार नहीं देना चाहती, जिसके पास अनुभव या संगठन में स्वीकार्यता कम हो।
एक और बड़ा कारण यह भी है कि उत्तराखंड भाजपा कई धड़ों में बंटी रही है। पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत, रमेश पोखरियाल निशंक, तीरथ सिंह रावत और वर्तमान मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी कृ सभी के अपने-अपने राजनीतिक गुट हैं। इन सबके बीच संतुलन बनाकर चलने वाला चेहरा पार्टी के लिए बेहद आवश्यक था। महेंद्र भट्ट इस भूमिका में अब तक सफल रहे हैं और उनके चयन से पार्टी ने यही संकेत देने की कोशिश की है कि वह फिलहाल किसी भी ध्रुवीकरण से बचना चाहती है। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के लिए भी यह आसान विकल्प था कि वह किसी विवाद या आपसी खींचतान में न पड़कर उसी नेता को दोबारा अवसर दे, जिसने पहले से संगठन को चलाया है। यह निर्णय एक और सच्चाई को भी उजागर करता है कि भाजपा के पास शायद वर्तमान में कोई ऐसा नया, युवा और सर्वस्वीकार्य चेहरा नहीं है, जिसे प्रदेश संगठन की कमान दी जा सके। यह सवाल पार्टी के भीतर नेतृत्व विकास की प्रक्रिया पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है। जब किसी राजनीतिक दल के पास नेतृत्व देने योग्य युवा चेहरों की कमी हो, तो लंबे समय में यह संगठनात्मक जड़ता का संकेत हो सकता है। यह स्थिति तब और चिंता का कारण बनती है जब पार्टी को अगले दो से तीन वर्षों में स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक कई चुनावों का सामना करना हो।

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