22 मार्च 2023 से शक्ति की भक्ति का पर्व चैत्र नवरात्रि शुरू होने जा रही है। चैत्र नवरात्रि से नए युग की शुरुआत हो जाती है। चैत्र नवरात्रि के पहले दिन यानी की चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि पर शुभ मुहूर्त में घर-घर कलश स्थापना की जाती है और फिर 9 दिन तक मां दुर्गा के भक्त विधि विधान से जगत जननी मां भवानी की पूजा करते हैं।
कलश स्थापना मुहूर्त
चैत्र नवरात्रि की प्रतिपदा तिथि यानी कि 22 मार्च 2023 को कलश स्थापना के लिए सबसे अच्छा समय सुबह 06 बजकर 29 मिनट से 07 बजकर 39 मिनट तक उत्तम मुहूर्त है। घटस्थापना के लिए सबसे अच्छा अभिजित मुहूर्त माना जाता है लेकिन इस बार चैत्र नवरात्रि के पहले दिन अभिजीत मुहूर्त प्रयुक्त नहीं है।
कलश स्थापना के नियम
सही दिशा में हो कलश – कलश को सभी देव शक्तियों, तीर्थों आदि का संयुक्त प्रतीक मानकर उसे स्थापित एवं पूजित किया जाता है. ऐसे में जरुरी है कि कलश को सही दिशा में स्थापित करें ताकि इसका पुण्य फल प्राप्त हो. ईशान कोण (उत्तर-पूर्व) देवताओं की दिशा होती है. इस दिशा में ही कलश को स्थापित किया जाता है.
राहुकाल समय – चैत्र नवरात्रि में घटस्थापना के लिए राहुकाल मुहूर्त का विशेष ध्यान रखें. राहुकाल के समय के मां दुर्गा की पूजा और कलश स्थापना भूलकर भी न करें. इससे पूजा-व्रत का फल नहीं मिलता और जीवन में कई परेशानियां आने लगती है. चैत्र नवरात्रि के पहले दिन राहुकाल दोपहर 12 बजकर 28 मिनट से दोपहर 01 बजकर 59 मिनट तक है.
कलश में पवित्र जल भरें – ध्यान रखें की घटस्थापना में कलश के अंदर स्वच्छ और पवित्र जल भरें. मान्यता है कि कलश में भरा जाने वाला जल वरुणदेव का प्रतीक होता हैं. कलश की स्थापना के बाद उसके पूजन के बाद वह जल सामान्य जल न रहकर दिव्य ओजस्वी बन जाता है.
कलश का मुंह खुला न छोड़ें- चैत्र नवरात्रि में कलश स्थापित करते वक्त उसका मुख खुला न छोड़े, इसके ऊपर ढक्कन रखने और उसमें चावल भरकर बीच में नारियल स्थापित करें. देवी भगवती पुराण के अनुसार कलश में संपूर्ण देवी-देवताओं का वास, इसे ढक्कर कलश की पूजा की जाती है. मान्यता है कि इसकी उपासना के बाद ये मात्र जल से भरा लौटा नहीं बल्कि इसमें दैवीय शक्ति वास करती हैं.
घटस्थापना के लिए जगह का चयन – घट स्थापना स्थल के आस-पास शौचालय या बाथरूम नहीं होना चाहिए. पूजा स्थल के ऊपर यदि टांड हो तो उसे साफ-सुथरा रखें. अगर पूजा स्थल के ऊपर कोई आलमारी या सामान रखने की जगह है तो उसे भी अच्छी तरह साफ कर लें. कलश स्थापना के लिए सबसे सही जगह है पूजा घर. कलश के नीचे जमीन पर स्थापित न करें. इसके लिए लकड़ी के पाट का इस्तेमाल ही करें.
कलश स्थापना से पूर्व करें ये काम – अखंड ज्योति के बिना कलश स्थापना अधूरी मानी जाती है. ध्यान रहे घट स्थापित करने से पहले बड़े से मिट्टी के या पीतल के दीपक में अखंड ज्योति प्रज्वलित करें, इसकी बाती इतनी लंबी रखें जो 9 दिन तक चल जाए. अखंड ज्योति को आग्नेय कोण में स्थापित करें. कलश स्थापना के बाद 9 दिन तक सुबह-शाम सफाई के बाद पूजा करें और घर सूना न छोड़ें
पहले दिन मां दुर्गा के पहले स्वरूप शैलपुत्री की पूजा होती है। पर्वतराज हिमालय के यहां पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा था। भगवती का वाहन वृषभ, दाहिने हाथ में त्रिशूल, और बायें हाथ में कमल सुशोभित है। देवी दुर्गा के नौ रूप होते हैं।
कथानक :- एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया। इसमें उन्होंने सारे देवताओं को अपना-अपना यज्ञ-भाग प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किया, किन्तु शंकरजी को उन्होंने इस यज्ञ में निमंत्रित नहीं किया। सती ने जब सुना कि उनके पिता एक अत्यंत विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तब वहां जाने के लिए उनका मन विकल हो उठा।
अपनी यह इच्छा उन्होंने शंकरजी को बताई। सारी बातों पर विचार करने के बाद उन्होंने कहा- प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं। अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया है। उनके यज्ञ-भाग भी उन्हें समर्पित किए हैं, किन्तु हमें जान-बूझकर नहीं बुलाया है। कोई सूचना तक नहीं भेजी है। ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहां जाना किसी प्रकार भी श्रेयस्कर नहीं होगा।’
शंकर जी के इस उपदेश से सती का प्रबोध नहीं हुआ। पिता का यज्ञ देखने, वहां जाकर माता और बहनों से मिलने की उनकी व्यग्रता किसी प्रकार भी कम न हो सकी। उनका प्रबल आग्रह देखकर भगवान शंकरजी ने उन्हें वहां जाने की अनुमति दे दी।
सती ने पिता के घर पहुंचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बातचीत नहीं कर रहा है। सारे लोग मुंह फेरे हुए हैं। केवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव भरे हुए थे।
परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत क्लेश पहुंचा। उन्होंने यह भी देखा कि वहां सब ओर भगवान शंकर जी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है। दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे। यह सब देखकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा। उन्होंने सोचा भगवान शंकरजी की बात न मान, यहां आकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है।
वे अपने पति भगवान शंकर के इस अपमान को सह न सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। वज्रपात के समान इस दारुण-दुःखद घटना को सुनकर शंकरजी ने क्रुद्ध होकर अपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया।
सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वे ‘शैलपुत्री’ नाम से विख्यात हुर्ईं। पार्वती, हैमवती भी उन्हीं के नाम हैं। उपनिषद् की एक कथा के अनुसार इन्हीं ने हैमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व-भंजन किया था।’शैलपुत्री’ देवी का विवाह भी शंकरजी से ही हुआ। पूर्वजन्म की भांति इस जन्म में भी वे शिवजी की ही अर्द्धांगिनी बनीं।
नव दुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री दुर्गा रूप का पूजन करने के उपरान्त “ ॐ प्रथमं शैलपुत्र्यै नमः’’ मन्त्र का जप करना चाहिये और भोग आदि लगाकर कर्पूर आरती करनी चाहिए l मां शैलपुत्री की आराधना से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।