कोरोना काल में आयुर्वेद की ताकत का पूरी दुनिया ने लोहा माना है, जिसके बाद अब देश में औषधीय खेती की ओर किसानों की भी रुचि बढ़ने लगी है. यही कारण है कि परंपरागत बीजों से हटकर कई आधुनिक किसान अब लाभ की खेती के रूप में औषधीय खेती की ओर तेजी से अग्रसर हुए हैं, जिसमें कि ‘अश्वगंधा’ की खेती भी एक अच्छे विकल्प रूप में किसानों के सामने है, जो कि किसानों को लगातार आर्थिक रूप से मजबूत बना रही है. लागत के मुकाबले अधिक लाभ मिलने से इन किसानों का परिवार भी बहुत खुश है और इनकी गिनती अपने क्षेत्र में समृद्ध किसान में की जाने लगी है.
जून से अगस्त तक होती है अश्वगंधा फसल की बुआई
इस औषधीय खेती करने वाले किसानों का कहना है कि अश्वगंधा फसल की अगर समय पर पर बुवाई की जाए, सिंचाई की जाए, तो उत्पादन अच्छा होता है. मध्य प्रदेश राज्य के नीमच-मंदसौर के वैद्य एवं कृषक कहते हैं कि अश्वगंधा की फसल की बुआई बारिश के अनुसार जून से अगस्त तक की जाती है. कुल मिलाकर अश्वगंधा की जुलाई में बुवाई होने के बाद इसकी जनवरी-फरवरी में फसल तैयार होती है. इसके लिए जरूरी है कि किसान जून के पहले सप्ताह में अपनी नर्सरी तैयार कर लें.
प्रति हेक्टेयर 70 से 90 हजार रुपए का होता है लाभ
इसके साथ ही इसमें जरूरी है कि प्रति हेक्टेयर की दर से पांच किलोग्राम बीज डाला जाए. एक हेक्टेयर में अश्वगंधा पर अनुमानित व्यय दस हजार के करीब आता है. सभी खर्चे जोड़ घटाने के बाद, जो शुद्ध-लाभ इससे प्रति हेक्टेयर होता है, वह कम से कम 70 हजार रुपये तक है. यदि खेती में उन्नत प्रजाति का उपयोग करते हैं, तो उसमें परम्परागत प्रजातियों की तुलना में प्रति हेक्टेयर लाभ और अधिक बढ़ जाता है, जो कि 90 हजार रुपए तक होता है.
बुआई और जुताई में रखें इन बातों का ध्यान
अश्वगंधा की खेती के लिए जरूरी है कि वर्षा होने से पहले खेत की दो-तीन बार जुताई कर लें. बुआई के समय मिट्टी को भुरभुरी बना दें. बुआई के समय वर्षा न हो रही हो तथा बीजों में अंकुरण के लिए पर्याप्त नमी हो. वर्षा पर आधारित फसल को छिटकवां विधि से भी बोया जा सकता है. अगर सिंचित फसल ली जाए तो बीज पंक्ति से पंक्ति 30 सेमी. व पौधे से पौधे की दूरी पांच-दस सेमी. रखने पर अच्छी उपज मिलती है तथा उसकी निराई-गुड़ाई भी आसानी से की जा सकती है. बुआई के बाद बीज को मिट्टी से ढक देना चाहिए.
फसल पर नहीं पड़ता रोग व कीटों का विशेष प्रभाव
अश्वगंधा पर रोग व कीटों का विशेष प्रभाव नहीं पड़ता. कभी-कभी माहू कीट तथा पूर्ण झुलसा रोग से फसल प्रभावित होती हैं. ऐसी परिस्थिति में मोनोक्रोटोफास का डाययेन एम- 45, तीन ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर बोआई के 30 दिन के अंदर छिड़काव कर देने से कीट समस्या समाप्त हो जाती है. यदि आपको लगता है कि कीट पूरी तरह से नहीं समाप्त हुआ है, तो किसान फिर दो सप्ताह बाद फिर से छिड़काव करें.
अश्वगंधा में नहीं किया जाता रासायनिक खाद का उपयोग
अश्वगंधा की फसल में किसी प्रकार की रासायनिक खाद नहीं डालनी चाहिए क्योंकि इसका प्रयोग औषधि निर्माण में किया जाता है, लेकिन बुआई से पहले 15 किलो नाइट्रोजन प्रति हैक्टर डालने से अधिक उपज मिलती है. बुआई के 20-25 दिन पश्चात पौधों की दूरी ठीक कर देनी चाहिए. खेत में समय-समय पर खरपतवार निकालते रहना चाहिए. अश्वगंधा जड़ वाली फसल है, इसलिए समय-समय पर निराई-गुड़ाई करते रहने से जड़ को हवा मिलती रहती है जिसका उपज पर अच्छा प्रभाव पड़ता है.
नई प्रजातियों का उपयोग कर बढ़ाया जा सकता है लाभ
इसके साथ ही वे बताते हैं कि अश्वगंधा की परम्परागत प्रजातियों के साथ आज नई प्रजातियां जिन्हें हम उन्नत भी कह सकते हैं, हमारे भारतीय वैज्ञानिकों ने विकसित कर ली हैं. जिसमें कि उत्तर प्रदेश के लखनऊ में इसे लेकर बहुत ही प्रमाणित कार्य अभी भी चल रहा है. अश्वगंधा की उन्नत प्रजातियों में जवाहर असगंध की अनेक प्रजातियां बाजार में उपलब्ध हैं. पोशिता व अन्य प्रजातियां ‘सीमैप’ लखनऊ द्वारा विकसित की गई है. इनका खेतों में उपयोग कर अपने लाभ को किसान और कई गुना अधिक बढ़ा सकते हैं.
बड़े काम की है अश्वगंधा
वैद्य पंकज शुक्ला कहते हैं कि अश्वगंधा की जड़ें व पत्तियां औषधि के रूप में काम में लाई जाती हैं. यह ट्यूमर प्रतिरोधी है. यह जीवाणु प्रतिरोधक है. यह उपशामक व निद्रादायक होती है. इसकी सूखी जड़ों से आयुर्वेदिक व यूनानी दवाइयां तैयार होती हैं. जिसमें कि विशेष तौर पर जड़ों से गठिया रोग, त्वचा की बीमारियां, फेफड़े में सूजन, पेट के फोड़ों, मंदाग्निका कमर व कूल्हों के दर्द निवारण में किया जाता है.